जीवन के एक पड़ाव पर आकर वे वेदांत की विराटता के अनंत आनंद को महसूस करने लगे थे औऱ उसके सामने कई बार बाकी सब कुछ उन्हें तुच्छ और छोटा नज़र आने लगता. इस समय उनकी भाषा में एक अभिभावकपना भर जाता, मानो वे बाकी सबको अपना बच्चा समझ रहे हों. ‘बच्चे’, ‘मेरे पुत्रो’ ‘वत्स’ जैसे संबोधन का इस्तेमाल तो वे अक्सर ही करते थे, और ऐसा सहज होता हुआ दिखता था.
विवेकानंद लगातार सीखते रहे और बदलते रहे. उन्हें जब जो सही लगा उसे बिना लाग-लपेट के और जोरदार तरीके से कहा. इसलिए कई बार वे अपने निर्णय और विचारों को तुरंत ही पलट देते थे. उसका एक नमूना यहां दिया जा रहा है: जून 1894 में शिकागो से शशि नाम के अपने एक गुरुभाई को वे चिट्ठी में लिखते हैं - ‘चरित्र-संगठन हो जाए, फिर मैं तुम लोगों के बीच आता हूं, समझे? दो हजार, दस हजार, बीस हजार संन्यासी चाहिए, स्त्री-पुरुष दोनों, समझे? चेले चाहिए चेले, जिस तरह भी हों. गृहस्थ चेलों का काम नहीं, त्यागी चाहिए - समझे? ...केवल चेले मूड़ो, स्त्री-पुरुष जिसकी भी ऐसी इच्छा हो - मूड़ लो, फिर मैं आता हूं. बैठे-बैठे गप्पें लड़ाने और घंटी हिलाने से काम नहीं चलेगा. घंटी हिलाना गृहस्थों का काम है.’
लेकिन एक महीने के भीतर अपने इसी गुरुभाई को लिखे दूसरे पत्र में वे अपनी राय बदल देते हैं, और वह भी उतने ही जोरदार तरीके से. वे लिखते हैं - ‘हममें एक बड़ा दोष है - संन्यास की प्रशंसा. पहले-पहल उसकी आवश्यकता थी, अब तो हम लोग पक गये हैं. उसकी अब बिल्कुल आवश्यकता नहीं. समझे? संन्यासी और गृहस्थ में कोई भेद न देखेगा, तभी तो यथार्थ संन्यासी है.’
विवेकानंद किसी भी प्रकार की कट्टरता के खिलाफ थे. जीवन-चर्या को लेकर भी वे किसी कठोर अनुशासन के पक्षधर नहीं थे. उन्हें स्वयं भी मांसाहार और धूम्रपान से परहेज नहीं था. हालांकि उन्होंने इन सब चीजों का कभी महिमांडन भी नहीं किया. जातिभेद के प्रसंग में उन्होंने अपने धूम्रपान से जुड़ी एक घटना का जिक्र अवश्य किया. आगरा और वृंदावन के बीच के रास्ते में उन्होंने तंबाकू पीने के लिए किसी से चिलम मांगी. उस आदमी ने कहा - ‘महाराज, मैं मेहतर हूं.’ विवेकानंद एक बार को तो आगे बढ़ गए, लेकिन तभी उनके मन में विचार उठने लगे कि मैंने तो जाति, कुल, मान सब त्यागकर संन्यास लिया है, तो मेहतर को नीच क्यों समझूं. वे वापस लौटे और मेहतर के हाथों से चिलम लेकर धूम्रपान किया.
महिलाओं के कल्याण के बारे में विवेकानंद के विचार अपने समय के नारीवादियों से कहीं आगे के थे. चीन, जापान अमेरिका और यूरोप जहां कहीं भी वे गए, उन्होंने वहां की महिलाओं की स्थिति का खासतौर पर अध्ययन और विश्लेषण किया. सिस्टर निवेदिता से संगति और लगातार बहस ने भी उन्हें महिलाओं की स्थिति समझने में मदद की. इसलिए उन्होंने भारत की महिलाओं के उत्थान के बारे में जोरदार तरीके से अपनी बात रखी. 25 सितंबर 1894 को अपने प्रिय मित्र शशि (स्वामी रामकृष्णानंद) को न्यूयॉर्क से लिखी चिट्ठी में वे कहते हैं - ‘मैं इस देश की महिलाओं को देखकर आश्चर्यचकित हो जाता हूं. ...ये कैसी महिलाएं हैं, बाप रे! मर्दों को एक कोने में ठूंस देना चाहती हैं. मर्द गोते खा रहे हैं. ...मैं स्त्री-पुरुष भेद को जड़ से मिटा दूंगा. आत्मा में भी कहीं लिंग का भेद है? स्त्री और पुरुष का भेदभाव दूर करो, सब आत्मा है.’
एक अन्य संन्यासी शिष्य को फटकारते हुए उन्होंने कहा था- ‘तुम लोग स्त्रियों की निंदा ही करते रहते हो, परंतु उनकी उन्नति के लिए तुमने क्या किया, बताओ तो? स्मृति आदि लिखकर, नियम-नीति में बांधकर इस देश के पुरुषों ने स्त्रियों को एकदम बच्चा पैदा करने की मशीन बना डाला है. ...सबसे पहले महिलाओं को सुशिक्षत बनाओ, फिर वे स्वयं कहेंगी कि उन्हें किन सुधारों की आवश्यकता है. तुम्हें उनके प्रत्येक कार्य में हस्तक्षेप करने का क्या अधिकार है? ...उन्नति के लिए सबसे पहले स्वाधीनता की आवश्यकता है. ...महिलाओं के प्रश्न को हल करने के लिए आगे बढ़ने वाले तुम हो कौन? अलग हट जाओ. अपनी समस्याओं की पूर्ति वे स्वयं कर लेंगी.’
विवेकानंद के हृदय में समूची मानवता के प्रति अगाध प्रेम और दया थी. लेकिन अपनी भावुकता में वे बात करते-करते उग्र हो जाते थे. आंसू भी बहाने लगते थे. सब कुछ बदल डालने की धुन और जल्दी उनपर सवार थी. एकबार तो उनके मन में आया कि वे अमेरिका से बहुत सारा पैसा कमाकर लाएंगे और भारत का उद्धार कर देंगे. मोटिवेशनल स्पीच की एक कंपनी ने देखा कि विवेकानंद के भाषण को सुनने के लिए अमरीकी टूट पड़ते हैं. विवेकानंद ने भी पैसे कमाकर भारत का कल्याण करने की धुन में उस कंपनी से पैसों के एवज में भाषण देने का करार कर लिया. उनके भाषणों से उस कंपनी ने तो खूब डॉलर कमाए, लेकिन विवेकानंद को तय रुपये नहीं दिए. विवेकानंद को भी ग्लानि हुई और उन्होंने फिर से निःशुल्क भाषण देना शुरू किया. हालांकि रामकृष्ण मिशन के रूप में उनका प्रयास यही रहा कि खोखले भाषण नहीं, बल्कि वास्तविक सेवा का कार्य कर वे देश की स्थिति में ठोस सुधार लाएं.
अत्यधिक भावुकता की वजह से ही अपने अंतिम दिनों में वे बहुत अकेलेपन और निराशा के भी शिकार हुए. इससे उनके स्वास्थ्य पर भी बहुत बुरा असर पड़ा और दमे ने उन्हें बहुत परेशान कर दिया. इस दौरान वे कभी अपने शिष्यों से कहते - ‘प्यारे बच्चो! पूरे भारत पर टूट पड़ो’ (यानि जनसेवा के लिए फैल जाओ)। लेकिन जब अड़चनें सामने आती तो उद्विग्न और विचलित होकर कहते - ‘कुछ नहीं, अब मैं हिमालय जाना चाहता हूं, छोड़ो प्रपंच।’ उनकी भावुकता का एक अंतिम और अविश्वसनीय उदाहरण यह है कि संन्यास ग्रहण करने के बाद भी उन्हें अपने परिवार का आर्थिक सहयोग करने की चिंता रही. इसके लिए उन्होंने कई बार प्रयास भी किया.
विवेकानंद जब अंतिम बार बीमार पड़े तो मां ने कहा कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि बचपन में विवेकानंद के स्वास्थ्य के लिए मानी गई एक मनौती उन्होंने पूरी नहीं की थी. मनौती थी कि ‘यदि मेरा बच्चा अच्छा हो जाए तो कालीघाट के काली मंदिर में विशेष पूजा करवाऊंगी और श्री मंदिर में बच्चे को लोटपोट कराऊंगी.’ पर यह बात माताजी भूल गई थीं. आजीवन टोने-टोटकों और अंधविश्वास का विरोध करनेवाले विवेकानंद भावनावश अपनी मां की बात काट नहीं सके. उन्होंने कालीघाट की आदि गंगा में स्नान करके गीले कपड़ों में ही काली-मंदिर में तीन बार लोट-पोट किया और फिर होम भी किया. इसके कुछ दिनों बाद ही – 4 जुलाई 1902 को - उनका देहांत हो गया. उनकी मां का निधन उनकी मृत्यु के नौ वर्ष बाद हुआ.
कुछ लोग मानते हैं कि विवेकानंद की यही भावुक क्रांतिकारिता उन्हें एक अलग प्रकार का उग्रपंथी विद्रोही तक बना सकती थी. लेकिन रामकृष्ण परमहंस ने उनके भीतर जल रही अनियंत्रित आग पर भक्ति और धर्म से भरी करुणा का जल छिड़क दिया. हालांकि ऐतिहासिक विश्लेषणों में ‘यूं होता तो क्या होता’ वाले चिंतन का कोई स्थान नहीं है, फिर भी विवेकानंद जैसे भावुक क्रांतिकारी की असमय मृत्यु जिस ऐतिहासिक मोड़ पर हुई उसे देखते हुए कुछ बातें सहज ही ध्यान में आती हैं:
उनके निधन के तेरह साल बाद गांधीजी भारत आये थे जो कमोबेश उनकी पीढ़ी के ही थे. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पहले ही दस्तक दे चुकी थी. तिलक, राजगोपालाचारी और मौलाना आज़ाद जैसे पंडित पूरी तरह राजनीति में उतर चुके थे. सांप्रदायिक मुस्लिमवाद और हिंदूवाद का खुलकर उदय हो चुका था. दंगों का सिलसिला शुरू हो चुका था. भगतसिंह और चन्द्रशेखर आजाद जैसे युवकों में सशस्त्र क्रांति को लेकर आकर्षण बढ़ चला था. बोल्शेविक क्रांति के बाद दुनिया भर में समाजवाद और साम्यवाद के नए रूप सामने आने लगे थे. पेरियार और अंबेडकर के रूप में जाति और पुरोहितवाद विरोधी आंदोलन एक नई शक्ल ले चुका था.
ऐसी परिस्थितियों में क्या यह देखना दिलचस्प नहीं होता कि विवेकानंद अगर थोड़े समय और होते तो क्या करते? बेशक, लगातार सीखने और तेजी से बदलने वाले धुन के पक्के विवेकानंद थोड़ा और जीते, तो शायद कुछ और ही होते !